upto 10%off
Indi - eBook Edition
रोहतांग आर-पार | Rohtang Aar-Paar

रोहतांग आर-पार | Rohtang Aar-Paar

by   Ajeya
Language: HINDI
Sold by: Aadhar Prakashan
Paperback
ISBN: 978-81-19528-94-3
350.00    315.00
Qty:

Book Details

रोहतांग आर-पार: डायरी

Watch Video Description

न जाने क्यों यह पुस्तक खोलने से पहले जैसा कि मैं धार्मिक पुस्तक के साथ करती हूं, मैंने पहले श्रद्धा भाव से आंख बंद कर पुस्तक को माथे से लगाया…

अब कारण तलाशा तो लगा संध्या समय भगवान जी से माफ़ी मांगते हुए पूजा के वक्त यह किताब पढ़ने के लिए खोली है, जब काम में व्यस्त होती हूं तो भगवान जी को कह देती हूं अभी काम ही पूजा है भगवान, माफ़ करें।

आवरण पर जानी मानी और जानी पहचानी चित्रकार डॉ संजू पॉल का चित्र है। डॉ संजू पॉल ने ही सिखाया है चित्रकला को समझने के लिए कुछ नहीं करना बस उसके सामने खड़े हो कर उसे देखते हुए उसमें डूब जाना है।

चित्र देखते पहला सवाल मन में उगा मुझसे नज़र मिलाती क्या यह किताब की आत्मा है!

(फिर तो कुकुरमुत्ते की तरह कई सवाल सर उठाने लगे)

या कि पहाड़ की आत्मा या फिर चित्रकार की या स्वयं लेखक की कहीं ये मेरी आत्मा का अक्स तो नहीं? थोड़ी देर और चित्र पर ठहरने पर जवाब मिलता है नहीं सिर्फ़ इतना थोड़े ही… कैसे होंगे एक हिमालयी कवि के नोट्स! यही तो जानने की उत्सुकता है। आगे बढ़ती हूं एक बार फिर ठिठक जाती हूं। मेरी दूसरी किताब की प्रथम समीक्षक दीप्ति सारस्वत तथा तमाम उन लोगों को जो सबसे बुरे समय में मेरे साथ खड़े रहे।

यहां अपना नाम देख कर यकीनन पहला भाव अविश्वास का है, दूसरा हैरत का, तीसरा खुशी का, चौथा खुद को इस लायक बनाने और बने रहने के संकल्प का, पांचवां आश्वस्ति का, छठा आत्मविश्वास और प्रशस्त पथ का और सातवां उत्साह और उमंग का।

छः आसमान पार कर मैं सातवें आसमान में हूं।

इस स्थिति में इस किताब को स्थिर हो पढ़ पाना संभव नहीं।

बुक मार्क अगले पन्ने पर लगा पूजा कर लेती हूं।

ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज़ाहिर करना आवश्यक है।

लौट कर अब पुस्तक अनजाने पाठक के रूप में खोली है।

अभी तक Non fiction में मेरी रुचि नहीं बन पाई है।

मुझे लगता है इसमें यथार्थ और रूखी बौद्धिकता मिल कर उबाऊ या फिर कड़वी कड़वी बातें बताई जाती हैं।

अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप फिक्शन की ओर मेरा झुकाव हमेशा रहा क्यों कि यह मन के तहखानों सा लगता है रोचक रहस्यपूर्ण तह दर तह राज़ छुपाए।

पिछले दिनों फेस बुक पर प्रदीप सैनी ने भी कहा था -

मेरी निजता इतनी सनसनीखेज़ है कि उसका खुलासा ध्वस्त कर सकता है मेरे सार्वजनिक को इसके लिए मैंने कविताओं में तहखाने बना रखे हैं।

इन तहखानों में तह दर तह उतरना बड़ा आश्चर्जनक और रोचक लगता है।

लेकिन इस पुस्तक का हर चैप्टर ऐसा लग रहा है मानो अजेय जी का दिमाग कोई अजायबघर है और मैं चकित सी उसके 43 अलग अलग विभागों में घूम रही हूं। अभी बाहर से देख कर कयास ही लगा रही हूं, दरवाजों के अंदर नहीं गई हूं।

यह पहली ऐसी पुस्तक है जिसके अनुक्रम को पढ़ना इतना रुचिकर लग रहा है।

निश्चय ही शीर्षक का महत्व तो है।

'यह किताब' शीर्षक के अंतर्गत अजेय जी बताते हैं यहां चीज़ें यथावत नहीं इकट्ठी कर ली गई हैं। श्रम पूर्वक संपादन किया गया है।

…आत्मकथा भी लिखने का मन है उसके लिए सामग्री बचाए रख रहा हूं।

तो क्या यह पुस्तक आत्मकथा की तैयारी का पहला चरण है?

उत्सुकता बढ़ती जा रही है।

1

'मैं और मेरा लोक' -

अजेय जी की स्मृति झा से ईमेल चर्चा का यह रोचक अंश कुछ दिन पहले मैंने फेसबुक पर पढ़ा था। शायद स्मृति का सवाल यह रहा कि आपके लोक की विशेषता क्या है?

अजेय जी ने जवाब में कहा

…हमारे पुरखे आपकी दुनिया को परदेस कहते रहे और आप लोगों को परदेसी उस अलगपन को विशेषता कहूं?

भिन्नता और अजनबी होना भी तो विशेषताएं ही हुई।

आगे अजेय जी बताते हैं

…ऊंची घसनियों में भेड़ें चराने का थ्रिल।

पढ़ते हुए अचानक फेसबुक मित्र अमित आनंद पांडे की याद साकार हो गई।

एक बार फोन पर उसने बताया था मैं चाहता हूं मेरे कंप्यूटर भेड़ों में तब्दील हो जाएं और मैं गड़रिए में।

अनुज सम अमित आनंद पांडेय दुनिया छोड़कर चला गया मगर अजेय जी ने जो जिया है वह किसी का सपना था।

“…उस ऊंचाई से हमें केलंग स्कूल अस्पताल पुलिस थाना की छतें एक नए पैसे के सिक्कों जितने दिखते थे। सड़कें और नदियां स्लेटी नीली रेखाओं सी। सड़क पर चलती कोई अकेली गाड़ी ऐसी दिखती मानो बुढ़िया की मटमैली स्लेटी लटों पर काली जूं रेंग रही हो।”

वर्णन पढ़कर लगता है वाकई ये एक हिमालयी कवि के नोट्स हैं।

मां का और पशुओं का रिश्ता बहुत रोचक और भोला है -

“मां कहा करती परदेस में ' माल ' को दुहने के लिए बांधना और चरने के लिए हांक देना काफी होता है लाहुल में इन्हें इंसान की तरह बाकायदा पालना पड़ता है।”

पढ़ते पढ़ते कभी की भूली बिसरी घटनाएं ध्यान में आने लगी हैं…

कॉलेज टाइम एक बार मैं और मेरी सहेली शिमला मॉल रोड पर घूम रहे थे दो लड़के हमारे पास से गुज़रे, एक ने मेरी सहेली पर कमेंट पास किया क्या माल है!

मेरा ध्यान न गया सहेली ने मुझे बताया तो भी मैं समझ न पाई। तब हम मॉल को देसी अंदाज़ में माल ही कहते थे। लेकिन बाद में दिमाग पर ज़ोर दिया तो लगा ओह बेचारी सहेली की तुलना सामान से की है।