कस्तूरी कुण्डल

प्रसिद्ध आदिवासी विमर्शकार अरुण कुमार त्रिपाठी एक जगह लिखते हैं कि, “आदिवासी सिर्फ बैंक है, जिसने जंगल में व्यापारियों के पैसा कमाने के लिए जंगल और जमीन की अमानत सँजो रखी है, नेताओं के वोट जुटा रखे हैं। आठ करोड़ आदिवासियों की हिमायत का दम भरने वाली सरकार को तो अब सिर्फ उद्योगपतियों का हित दिखता है। बड़े-बड़े कारखाने दिख रहे हैं। वह उदारवाद के रास्ते पर चलकर सिर्फ टाटा-बिड़ला और बांगड़बंधु के बारे में सोचती है। एकदम अमेरिकी अंदाज में। अमेरिका ने भी तो उद्योगीकरण के लिए एबओरिजिनल को इसी तरह खदेड़ा था।...बस्तर में कारखाने लगाने को उद्योगपति उतावले हैं। लोहंडीगुडा में टाटा का कारखाना पूरे शबाब पर है। एस्सार भी दंतेवाड़ा में घात लगाये हैं।”
आदिवासियों के संघर्ष का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना मानव-जाति का इतिहास। किंतु, वहाँ दर्द-चीख-भूख-लाचारी का संघर्ष बाकी जगहों से कहीं ज्यादा लंबा है। अंतहीन-कारुणिक। यदि वहाँ कहीं अधिकारों की आवाज उठती है, तो नक्सलवादी-आतंकवादी करार देने की शुलभता भी बाहर से आए लोगों ने उन पर जी भर कर थोपी है। यहाँ के इतिहास का अक्ष खींचते हुए महाश्वेता देवी ने ‘जंगल के दावेदार’ में सुगाना मुण्डा के मार्फ़त लिखा था, “मैं सुगाना मुण्डा, मुझे याद नहीं आता, कब मेरे पुरखे चुट और नागु ने आकर इस धरती पर चोट लगाई थी। कुआँरी धरती का कौमार्य हर कर मुण्डारी लोगों की बस्ती कब आबाद की थी। कब उनके नाम पर यह बाघ, बराह, भालुओं से भरा शाल-गाजर-सिधा-शीशम के पेड़ों का जंगल और किशोर धरती के उँचे कुसुमित वक्ष से कम ऊँचे पहाड़ों से ढका जो अपरूप है...मैं सुगाना मुण्डा – भिखारी से भी अधम, जिसके पेट में घाटो भी नहीं पड़ता, फटा कपड़ा पहने घूमता हूँ।”
यह लाचारी-बेबसी-भूख हरे-भरे जंगलों के बीच कैसे विकसित हुई? कहाँ से आया परिधान का इल्म? किसने बनाया बाहरी दुनिया में इनके रहने की नैतिकता-अनैतिकता का गणित? ऐसे अनगिनत सवाल हैं, जो बस्तर के जंगलों को जानते-समझते-पढ़ते दिमाग में कोंधते हैं। उत्तर की तलाश में उपलब्ध होती हैं– केवल चंद आवाजें। अव्वल तो वे भी मौन कर दी जाती हैं। कभी देश के सबसे बड़े नेता के लिए ख़तरा बताकर। कभी बन रहे नए देश की वैदिक संस्कृति की के सर्वथा विपरीत कहकर। कभी राष्ट्रीय प्रतीक का इस्तेमाल कर। कभी विकास के लिए ज़रूरी होते जारे औद्योगिकीकरण के बरास्ते। पीछे जंगल बचे रहते हैं- अभीशप्त, आहत और ठगे से।
सुरेश हंस का ताजातरीन उपन्यास ‘कस्तूरी कंडल’ एक ऐसा ही विमर्श हमारे सामने लाता है। इसमें सत्ता की विरुद्ध सीना तान कर खड़ी साहनी एक ऐसी व्यवस्था के लिए संघर्ष कर रही है, जो अंदर के नाद को अनहद नाद से जोड़ती है। वह स्त्री दोहन पर उतारू सारी सामाजिक-राजनीतिक सत्ता के विरुद्ध जिस पर्यावरणीय सत्ता को विकल्प के रूप में चुन रही है, वह इको-फैनिनिज्म का एक शानदार उदाहरण है।
निरन्तर उजड़ने और बसने की जद्दोजहद में लगा समुन्दर खा का परिवार, जिस तरह देश की साम्प्रदायिक राजनीति की कली खोलता है। हालाँकि, वह अब किसी के लिए चाहे नई चीज़ न बची हो, किन्तु उसका दस्तावेज़ीकरण यहाँ इस पूरी कथा को गति देता है।
निखिल का आदिवासी इलाकों में भ्रमण करना और वहाँ की सच्ची तस्वीर सामने लाना, प्रकृति के दोहन के पूरे गणित को समझने में मददगार हो सकता है। संतोष जैसे आदिवासी केवल इतना भर चाहते हैं, कि उनसे उनकी ज़मीन, जल और जीवन न छीना जाए। वे शहरों के मल्टीप्लेक्स नहीं चाहते। वह चाहते हैं, सहज जीवन और प्राकृतिक मृत्यु।
इस तरह यह कथा एक साथ ही आदिवासी अस्मिता, देसज आधुनिकता और स्त्री-अस्मिता के संघर्ष का महत्त्वपूर्ण आख्यान बनकर सामने आती है।
- अंकित नरवाल की समीक्षा।