यह भी विचित्र था कि
जहाँ घर बचा था
वहाँ सपने छीज गए थे
और जहाँ सपने मुकम्मल थे
वहां एक रिसती हुई छत थी
घर बुनने वाले बीत गए
ढहती दीवारें उम्मीद में खड़ी रहीं
कि एक दिन कैलेंडर के पन्ने बदलने
वापस आएगा वही वांछित स्पर्श
लोग आगे बढ़ गए
वहाँ वक्त ही थम गया था
वह घर जिसे इत्तिला नहीं किया गया
कि यही पल तुम्हारे हिस्से में आख़िरी लिखा गया है
उसने सालों साल सहेज रखीं हैं
जूठी प्लेट चम्मच
रसोई में टंगे सूप के पैकेट
सूखे हुए गमले
कभी पूजी गए ईश्वर की त्याज्य मूर्तियाँ
दीवारों पर लिखे कुछ अनगढ़ अक्षर
झरते प्लास्टर के बीच से उभरते हैं दृश्य
गूंजती हैं किलकारियां
अभी ही तो एक व्याकुल स्त्री
वहाँ अचानक रो पड़ी थी
और एक जोड़ी अबोध आँखों में
तिर आया था भय
अभी ही तो वह गयी थी कहकर
वापस आती हूँ ज़रा देर में
दरवाज़े तब से उसकी प्रतीक्षा में हैं
स्मृतियों पर उकेर दी जाती हैं
वर्तमान की इबारतें
दर्ज हो जाते हैं नए पदचाप
घर अपने सीने में छुपा रखता है
अतीत की आहटें
वे वहाँ धड़कती रहतीं हैं
बाशिंदों के रूठ जाने से अनजान
एक घर अपनी प्रतीक्षा में नष्ट होता रहता है