Ravi Punia

साल इक्कीसवां लगा हुआ था ,रातों को मैं जगा हुआ था ,,,
नया नया मुझसे दगा हुआ था , हुस्न का मैं ठगा हुआ था ...

नयी नयी आई जवानी थी , उम्मीदें बड़ी तूफानी थी ,,,
एक अपनी भी मस्तानी थी , मैं मछली था वो पानी थी ...

ना धुप लगे ना छाओं लगे , मेरा धरती पे ना पाओं लगे ,,,
दिल दुश्मन देह का हुआ , ना शहर लगे ना गाओं लगे ...

ज़िन्दगी फरयादी लगती थी , दुनिया मेरी आधी लगती थी ,,,
हर एक सांस मुझको उसके बिना , बे-बुनियादी लगती थी ...

कहने लगा उससे बात करो , मुझे बन्दा एक अनुभवी मिला ,,,
दिल की बात उसे कहने को , उससे जाके रवि मिला ,,,

उजाड़ दी दिल की दुनिया उसने किया एक-तरफ़ा फैसला ,,,
तो खुद की पीठ थपथपाने को , मुझको खुद में एक कवि मिला ...
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